Friday, October 26, 2012

Kuch chaahatein

काश फ़िक्र भी धुंए सी होती
की एक फूंक में धुंआ होती
न रहते अफ़सोस में डूबे तुम
और नाही ऐसी कशमकश होती

यु चाहतों का सिलसिला न होता शुरू
न ख्वाहिशों की ख्वाहिशें जगती
सोये रहते हम देर तक सपनों में खोये
न आँख खुलती और न सच्चाई से होते रूबरू

काश ज़िन्दगी में पीछे मुद पाते हम
तो खुशियाँ ही होती और न रहते ग़म
रंजिशें न होती, फासले न होते
बस होते तुम हमारे और तुम्हारे हम

रास्तों ने रातों को चलना छोड़ दिया
जबसे तेरी यादों में हमने सोना छोड़ दिया
अब जागती है आँखें तेरे इंतज़ार में
और इन पलकों ने झपकना छोड़ दिया

काश मिलते कुछ फ़रिश्ते भी राह-ए-ज़िन्दगी में हमसे
कुछ बातें साफ़ करनी थी
की मोहब्बत दी तो दी पर जुदाइयां क्यों दी
की मेरा वजूद वो है और उन्का  वजूद हमसे

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