Thursday, December 18, 2014

इंसानियत की लाश

बोल उठी बेज़बान किताबें ये क्या इंसान कर आया है
मैने जो ना खुद समझा वो तुझे किसने सिखाया है?

उधर कहीं एक तन्हा कलम बस एक सवाल उठाती है
अमन का दुश्मन कौन है जिसने खून की स्याही बनाई है?

स्कूल के खाली बरामदे हमें एक मुस्कान याद दिलाते है
यूही मस्ती में कभी बिन-बात के ही कुछ नन्हे चेहरे हंसते थे

आज खौफ़ है उन्ही मैदानो में जहाँ तितलियाँ पकड़ा करते थे
क्या पता कुछ जाहिल इन मासूमों से क्यों डरते थे?

जहाँ रोज़ अमन और प्यार का एक नया पाठ पढ़ते थे
वो नादान परिंदे अब उस बेंच को बड़े याद आते है

जिन पैरों को धीमे धींमे चलते उछलते देखा था
आज घर के सूने आँगन को उन क़दमों का इंतेज़ार है

मलबे में दबी उन किताबों में कल की उम्मीदें भी थी,
उन खामोश दीवारों के नीचे एक लाश इंसानियत की भी थी.

-सत्यव्रत